क्या यही है गतिशील भारत


अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपने देश का प्रतिनिधित्व करना दुनिया में किसी के लिए भी गर्व की बात है. ख़ासकर उस खिलाड़ी के लिए जो जान लगाकर खेलता है और जीतता है. लेकिन भारत में ऐसे खिलाड़ियों को क्या मिलता है, उपेक्षा, गरीबी, अपमान? यकीन नहीं आता तो पढ़िए उन खिलाड़ियों की दास्तां जो अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में विजेता रहे लेकिन आज पेट पालने के लिए गोलगप्पे, सब्जियां बेच रहे हैं या गाड़ियां धो रहे हैं...

खेल: तैराकी

प्रकृति से भरत कुमार को सिर्फ एक हाथ दिया लेकिन बावजूद इसके न उनके हौंसले कम हुए और न ऊंचे सपनों की उड़ान. एक हाथ और अभावों में भी उन्होंने तैराना सीखा और देश के लिए लिए 50 अंतरराष्ट्रीय पदक भी जीते. उनका सपना है कि वो पैरा ओलंपिक में तैराकी में भारत का प्रतिनिधित्व करें

आज के हालात: DU में पढ़ने वाले भरत आज पैसों की किल्लत से जूझ रहे हैं. अपना पेट पालने के लिए वो रोज़ सुबह गाड़ियां धोते हैं. मदद के लिए उन्होंने PM मोदी से मदद भी मांगी है

सरवन सिंह, ऐसा नाम जो आपने नहीं सुना होगा लेकिन उसके रिकॉर्ड अपनी कहानी कहते हैं. आज अपनी बढ़ती उम्र से गुज़र रहे सरवन सिंह ने 1954 के एशियन गेम्स में 110 मीटर हर्डल रेस में ऐतिहासिक रिकॉर्ड बनाया था. उन्होंने 14.7 सेकेंड में 13 हर्डल पार करके इतिहास में अपना नाम दर्ज कराया था.

आज के हालत: रेस की तमाम हर्डल पार करने वाले सरवन ज़िंदगी की गरीबी पार नहीं कर सके और आज पेट पालने के लिए ड्राइवर और कृषि मज़दूर के तौर पर काम कर रहे हैं. उनकी मदद के लिए उन्हें 1500 रुपए पेंशन दी जाती है लेकिन इससे उनकी क्या मदद होती होगी वो समझा जा सकता है

सिंगुर पश्चिम बंगाल की रहने वाली आशा रॉय महज़ 11.85 सेकेंड में अपनी दौड़ पूरी करने वाली सबसे तेज़ भारतीय महिला धावक हैं. 2011 कोलकाता में हुए 51 वें राष्ट्रीय ओपन एथलेटिक्स चैंपियनशिप में 200 और 400 मीटर रिले दौड़ में हिस्सा लेकर शानदार प्रदर्शन किया.

आज के हालात: अपनी रोज़ाना की ज़िंदगी के लिए आज आशा सब्जियां बेचती हैं. इससे न तो उनकी ज़रूरतें पूरी हो पाती हैं और न ही एथलेटिक्स के लिए भोजन की मांग. लाख गुहार के बाद भी राजनीतिक दलों से उन्हें सिर्फ आश्वासन मिले. इन्हीं हालातों के कारण वो अपने करियर को अलविदा कह चुकी हैं

रेवा मध्य प्रदेश की रहने वाली सीता ने 2011 एथेंस में हुए स्पेशल ओलंपिक में दो कास्य पदक जीतकर देश का सिर गर्व से ऊपर किया था. सीता ने 200 और 1600 मीटर दौड़ में ये मुकाम पाया था लेकिन इतने शानदार प्रदर्शन के बाद भी आज जो उसके हालात झकझोर देने वाले हैं

आज क्या हैं हालात: जीत के बाद शुरूआत में उसे कुछ मदद ज़रूर मिली लेकिन वो इतनी काफी नहीं थी कि उसके ख़्वाबों को ऊंची उड़ान दे सके. आज वो सड़क पर गोलगप्पे बेचकर अपनी मां का हाथ बंटाती है

12 साल की उम्र में प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर प्रतियोगिताओं में शानदार प्रदर्शन करने वाली रश्मिता अंतरराष्ट्रीय मंच तक पहुंची. उनकी टीम ने 2008 मलेशिया में हुए अंडर 16 एशियन फुटबॉल कंफेडेरशन कप में हिस्सा लिया.

2010 में उनके शानदार प्रदर्शन की बदौलत ओडिशा टीम ने राष्ट्रीय फुटबॉल प्रतियोगिता जीती. वो एशियन फुटबॉल कंफेडेरशन (AFC) में पहुंचने वाली सीनियर टीम का हिस्सा भी रहीं.

आज के हालात: फुटबॉल में उनके वो स्वर्णिम दिन जैसे बीते वक्त की बात हो गई है. आज वो एक गृहणी और मां हैं. अपना घर चलाने के लिए पान की दुकान चलाती है. एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा था कि फुटबॉल उनके खून में है लेकिन गरीबी ने उसे ख़त्म कर दिया

कभी देश की महिला कबड्डी टीम की शान रहीं शांति देवी उस दौर की खिलाड़ी थी, जब महिला खिलाड़ी मुश्किल से ही मिलती थीं. 1976 से अपने करियर की शुरुआत करने वाली शांति देवी ने अपने प्रदेश की टीम को 10 से ज़्यादा बार राष्ट्रीय खेलों में प्रतिनिधित्व किया. गुवाहटी राष्ट्रीय कबड्डी लीग में उन्होंने सिल्वर मेडल जीता था.

आज के हालात: अपनी दौर की बेहतरीन खिलाड़ी रहीं शांति देवी आज अपना पेट पालने के लिए सब्जी बेच रही हैं. जमशेदपुर के बाज़ार में उन्हें सब्जी बेचते हुए आज भी देखा जा सकता है. गरीबी का दंश उनके जीवन पर इतना गहरा था कि एक शानदार खिलाड़ी से आज वो एक मज़दूर सी ज़िंदगी बिता रही हैं

कहॉ गई वो सरकारें राजनैतिक कौवे विकास का डंका पीटने वालों क्या यही है प्रगत देश के युवाओं का  भविष्य??

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