आज भी महिला सुरक्षा एक निरुत्तर प्रश्न

पटरी पर दौड़ती मौत
केरल, 2011 सौम्या को ट्रेन में पीटकर बाहर फेंक दिया गया और बाद में उससे रेप किया गया

महाराष्ट्र, 2013 लोकल ट्रेन के लेडीज़ कोच में एक बंदे ने 23 साल की युवती से बलात्‍कार की को‌शिश की

उत्तर प्रदेश, 2014 तीन लोगों ने एक छात्रा को मारा और बाहर फेंक दिया, क्योंकि उसने छेड़छाड़ करने वाले एक शख्‍़स को तमाचा मार दिया था

बे'बस'
दिल्ली, 2012 23 साल की फिज़ियोथेरेपी इंटर्न के साथ छह दानवों ने बलात्कार किया. वहशीपन की हद इतनी कि कुछ दिनों बाद युवती ने दम तोड़ दिया

बंगलुरु, 2014 हरियाणा में एक बस चालक ने 23 वर्षीय युवती से छेड़छाड़ की और उसे चलती बस से बाहर फेंक दिया. वो 2012 में भी ऐसा ही कुछ कर चुका था

टैक्सी में हैवानियत
उबर टैक्‍सी ड्राइवर यादव, जिसके कारण फिर सुरक्षा के दावों की पोल खुली

हैदराबाद, 2013 दो कार ड्राइवर ने एक सॉफ्टवेयर इंजीनियर का अपहरण कर उससे बलात्कार किया. चार घंटे तक यह कयामत चलती रही और देर रात ढाई बजे उसे हॉस्टल के बाहर फेंककर चले गए

दिल्ली, 2014 चार साल की बच्ची से तिमारपुर में प्राइवेट स्कूल कैब ड्राइवर ने छेड़छाड़ की और यह मामला कई दिन तक चला

ऑटो का भी यही हाल
मुंबई, 2013 बाइक पर सवार दो लोगों ने 23 साल की युवती से बदतमीज़ी की. उस महिला ने उनका वीडियो बनाया और सोशल मीडिया पर डाल दिया. इसके बाद दो और महिला सामने आईं, जिन्होंने इन दोनों पर इसी तरह के आरोप लगाए

दिल्ली, 2014 झारखंड की 14 साल की किशोरी से बलात्‍कार हुआ और गुड़गांव में छोड़ दिया गया

   देश में रोज, शायद यह शब्द उपयुक्त नहीं, हर पल नारी के साथ हो रहे दुराचार से इतर मीडिया में प्रचारित और प्रसारित गुवाहाटी कांड, दिल्ली बस कांड महाराष्ट्र में लातुर मुंबई में हुए घटनाओं के बाद नारी की सुरक्षा के सवाल पर खूब विरोध प्रदर्शन हुए, मोमबत्तियां जलायी गयीं, टीवी चैनलों पर जोरदार बहस हुई, सरकार की खिंचायी की गयी; लेकिन परिणाम क्या हुआ?

     अब राजनीति से इतर लोगों पर दृष्टिपात करें तो भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं दिखती। जब कोई कांड मीडिया में बहुत हाइलाइटेड हो जाता है तो लोगों का तथाकथित सब्र का बांध टूट जाता है और फेसबुक पर फ्लर्टिंग में मशगूल लोगों से लेकर समाज के लिए तथाकथित चिंतित लोग सोशल नेटवर्किंग साइट से लेकर सड़कों तक अपनी चिन्ता और जोश उगलने लगते हैं। लेकिन कुछ पलों बाद सबकुछ पहले जैसा। (दामिनी) निर्रभया कांड के बाद क्या ऐसा नहीं हुआ था? खूब प्रदर्शन हुए, मोमबत्तियां जलायी गयीं। जंतर मंतर पर मेले का सा माहौल था। शाम की टहल करने वालों को भी अपनी ‘ईवनिंग वाक’  के लिए अच्छा स्थान और बहाना मिल गया था। लेकिन उसके बाद क्या हुआ? आरोपियों की गिरफ्तारी, सरकारी आश्वासनों और कई दिनों की थकावट ने धीरे धीरे जोश ठंडा कर दिया।
मोमबत्तियों के बुझने के साथ ही लोगबाग अपने जीवन के दूसरे कर्मों में आत्मसंतुष्टि के साथ तल्लीन हो गए।

     नारी के साथ दुराचार मोमबत्ती जलने के पहले भी हो रहे थे, मोमबत्ती जलने पर भी हुए और बुझने के बाद भी हो रहे हैं। हर घर, हर मोहल्ला, हर सड़क पर हर पल नारी बेइज्जत हो रही है। इसमें दोष किसका है? कितने पुलिसवाले हों और कौन से पैमाने बनाए जाएं इस दुराचार को परिभाषित करने के और किस पैमाने के लिए कितना दण्ड निर्धारित किया जाए और किस किस को दण्डित किया जाए? यह अहम सवाल है। नारी को बोलने की आजादी न देना भी दुराचार है और उसकी इज्जत के साथ खिलवाड़ भी दुराचार है। कितने कानून बनेंगे? क्या सिर्फ बैनर और तख्ती लेकर सड़क पर नारेबाजी से समस्या का निदान सम्भव है? सवाल बहुत से हैं और खास बात यह कि उत्तर किसी भी प्रश्न का नहीं और न ही लोग उत्तर खोजना चाहते हैं।...
     यह बात स्वीकारनी होगी कि इस तरह के मुद्दों पर जब हम झण्डे और बैनर लेकर सड़कों पर निकलते हैं तो दरअसल अपनी जिम्मेदारी से मुंह भी चुराते हैं। नारी अस्मिता के प्रश्न पर केवल सरकार नहीं बल्कि पूरा समाज दोषी है। हम भाषण तो बहुत अच्छे दे लेते हैं लेकिन खुद अपनी सोच की गारण्टी नहीं ले सकते। वास्तविकता में तो पूरे समाज को मनोचिकित्सा की जरूरत है।..

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